
विचार- भारत एक बहुभाषी देश है जिसकी लगभग अट्ठारह भाषाओं के पास अपनी लिपि है और विश्व की सोलह बड़ी भाषाओं में पाँच बड़ी भाषाएँ भारत के पास हैं जिनके बोलने, पढ़ने-लिखने वालों की संख्या पाँच करोड़ से अधिक है, इसलिए अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व की स्वाभाविक चिन्ता भारत को सर्वाधिक है और यह इसलिए नहीं कि अंग्रेजी अब केवल भूमण्डलीकरण के कारण आ रही है, बल्कि इसलिए कि अंग्रेज़ी हमारे देश के पास गत दो सौ बरस से है, वह संविधान की भारतीय भाषाओं में शामिल है और शिक्षा में प्राथमिक से विश्वविद्यालय स्तर तक उसका अध्ययन-अध्यापन कराया जाता है दूसरे वह हमारे केन्द्रीय शासन और प्रशासन की भी भाषा है । हमारे देश का प्रधानमंत्री, जन-नेता होने के बावजूद जब हमारी भाषा के बजाय अंग्रेज़ी में बोलता, लिखता है तो कहा जा सकता है कि जिस देश की सरकार स्वयं अंग्रेजी के वर्चस्व से दबी हुई है, जिसे अपनी भाषाओं पर गर्व और विश्वास नहीं हैं, वह सरकार हमारी भाषओं को कैसे बचाएगी और अंग्रेजी के खतरे को या एक-भाषीयता के खतरे को कैसे मिटायेगी?
Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!“भोपाल में आयोजित एक संगोष्ठी में जाने-माने भाषाविद्, हिन्दी साहित्यकार, साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित स्व. विद्यानिवास मिश्र ने कहा था कि हिन्दी हमसे छीन ली जानी चाहिए । जब हिन्दी कोई देश या राज छीन लेगा, तब जाकर हमें पता चलेगा कि अपनी भाषा क्या होती है और अपनी भाषा से वंचित होकर हम कितने पराधीन, लाचार और मजबूर हो गए है l”
अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ाने के लिए तो स्वतंत्रता के बाद न कोई अंग्रेज या अमेरिकी यहाँ अपनी सत्ता लेकर आए, न वे तमाम अंग्रेजी भाषी देश आए, जहाँ अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व है l जब जहाँगीर के दरबार में पहली बार सर टॉमस रो आया था तो दो चीजे साथ लाया था – एक तो व्यापार और दूसरी भाषा । ईस्ट इण्डिया कम्पनी आई तो वह भी दो चीजें लेकर आई वे ही, – अर्थात् व्यापार और भाषा । यह स्वाभाविक व्यापारी शर्त होती है कि वह व्यापार के साथ-साथ अपना वर्चस्व भी बढ़ाने लगती है और यही वर्चस्व एक दिन राज या साम्राज्य में बदल जाता है। जब साम्राज्य कायम हो जाता है तो पहले तो वह जिस देश में होता है, उसकी भाषा या भाषाएँ मिटाता है और दूसरे अपनी । भाषा लादता और आजमाता है । यह सभी उपनिवेशों में हुआ ! निरक्षरता ने लोकभाषाओं और क्षेत्रीय भाषाओं की एक प्रकार से रक्षा ही की, क्योंकि अंग्रेजी उन लोगों पर छाई जो पढ़े-लिखे थे, शहरी थे और सरकारों में नौकर बनने को तैयार थे । किसान लिखा-पढ़ा नहीं था, इसलिए अंग्रेज़ी को उसने अपनी भाषा नहीं बनने दिया, किसान किसी सरकार का नौकर बनना नहीं चाहता था, इसलिए उसने सरकार की भाषा को भी नहीं अपनाया l किसान का अपना समाज, अपनी संस्कृति अपना लोकाचार था, इसलिए उसे किसी अन्य भाषा के जरिए आने वाली संस्कृति की ज़रूरत नहीं थी। आज भी यदि हमारी लोकभाषाएँ जीवित हैं तो वह हमारे लोक अर्थात् किसान, ग्रामीणजन, मजदूर और आदिवासियों के कारण । हम तो शिक्षा के नाम पर, व्यापार और नौकरी के नाम पर उनकी भाषा मिटने को तुले हैं, उन्हें शिक्षित या साक्षर बनाकर उससे उनकी भाषा-चेतना, उनका भाषा-स्वभाव छीन लेना चाहते हैं । वे निरक्षर रह कर जितने शिक्षित और समझदार हैं उतने ही हम साक्षर बनाकर उन्हें स्वार्थी, नासमझ और भाषाविहीन बनाने का काम करेंगे ।
अंग्रेजी हटाओ का एक ईमानदार आन्दोलन लोहिया ने जरुर किया किया था लेकिन हमारे नेता, शासक और प्रशासकों के अन्दर जिस अंग्रेजी राष्टीयता का बीज बो गए थे, वह अब वृक्ष के रूप में इतना फैल गया है कि न तो कोई भी राष्ट्रीय आन्दोलन, संकल्प या कानून उस वृक्ष का काट सकता है, न उखाड़ सकता है और न हमारे अन्दर अंग्रेजों जैसा आत्मबल है और न अपनी भाषाओं के प्रति वैसा प्रेम या गौरव भाव। एक और बड़ा तथ्य यह है कि हम जब भी अपनी राष्ट्रीयता या भाषाई चिन्ता व्यक्त करते हैं, वह डर या सन्देह के साथ, शिकायत के साथ और पाखण्ड के साथ करते हैं। हमें डर लगता है कि अंग्रेजी नहीं होगी तो क्या होगा, नौकरी का क्या होगा, बड़े-बड़े वेतनों के बहुराष्ट्रीय या औद्योगिक पेकेजों का क्या होगा। फिर हमें सन्देह होता है कि कहीं ऐसा न हो कि हिन्दी वाले दक्षिण पर हावी हो जाएँ या दक्षिण वाले हिन्दी सीखकर उत्तर या हिन्दी क्षेत्र पर कब्जा कर लें। यह भी सत्य है कि हिन्दी नहीं मिटेगी, चाहे दुनिया भर की भाषाएँ यहाँ आ जाएँ ।
अंग्रेजी भले ही उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों की जीविका की एक छोटी-सी भाषा बन गई है मगर लोक जीवन की भाषा नहीं बन पाई है । शिक्षा अगर बढी और अंग्रेज़ी ज्यादा सीखी भी गई तो उससे कोई नुकसान नहीं होगा, क्योंकि अंग्रेज़ी एक नौकर या नौकरी की ही भाषा रहेगी वह बेडरूम बाथरूम और किचन की भाषा नहीं बन पाएगी। किसान का हल अपनी ही भाषा में चलेगा। ठेकेदार मजदूर को अपनी ही भाषा में बात करेगा और मजदूरी भी देगा, धर्म, कर्म के पण्डे-पुजारी अपनी ही भाषा या संस्कृति आदि में पूजा, पाठ, शादी, विवाह करवाएँगे न कि अंग्रेज़ी में, भले ही शादी और बर्थडे कार्ड्स अंग्रेज़ी में हो । अभी अंग्रेज़ी ऐसी भाषा नहीं बनी है जिसमें श्लोक या मंत्र हों । अंग्रेज़ी ही आगे चलकर हिन्दी और भारतीय भाषाओं को बचाएगी भी । तब लोगों को लगेगा कि अंग्रेज़ी हमारी भाषाओं को हड़पने लगी है, तब सरकार और व्यापार की इस हड़प नीति के विरुद्ध फिर कोई 1857 दोहराया जाएगा और फिर किसी नये 1947 का सूर्योदय होगा । ज़रूरत है भाषाओं को लड़ने का मुद्दा बनाने के बजाए, पढ़ने का, पढ़ाने का, रचने का और उनमें बसने का मुद्दा बनाया जाए । अगर कम्प्यूटर आज यूनिकोड लाकर सारी दुनिया को रोमनलिपि दे सकता है तो हम अपनी समस्त भाषाओं की एक समान लिपि बनाकर भारतीय भाषाओं का यनिकोड क्यों नहीं कर सकते! हीनताबोध, इच्छाशक्ति का अभाव, डर, सन्देह, शिकायत और मंचीय राजनीति से ग्रस्त देश जब तक एकभाषीयता ना राष्ट्रीय मॉडल नहीं रचता, तब तक अंग्रेजी का वर्चस्व कायम रहेगा और हम अपना आत्मविश्वास जीते रहेंगे ।