कविता : सुरसा बनी महँगाई – Yaksh Prashn
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कविता : सुरसा बनी महँगाई

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महँगाई फलफूल रही  जकड़ रही है देश को

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नए- नए रूप में आकर बदल रही है वेश को

हर जगह महँगाई की मार तोड़ रही कमर को

खाने को सोचने लगे है महँगा हुआ राशन जो।

किसान को तो खाद के मांदे आधी हुई कमाई

हर चीज की दुनी कीमत सुरसा बनी महँगाई

मिट्टी भी अब नही मिले है नही मीले है पानी

महगाई से सब जूझ रहे है याद आयी है नानी।

शिक्षा लेना आम नही है बन गई है व्यवसाई

बीमार को ऐसे ठग रहे है दस से सौ हुई दवाई

दस बीस कुछ काम न आवे सौ दो हुआ आम

महँगाई की चक्की में पिसना मजबूरी का नाम।

मजदूर रोज कमाते फिर भी उनके खाली हाथ

कपड़ा-लत्ता रोटी-भाजी खपरैल घर का साथ

कुछ न आगे सोचें ये महँगाई ने दी थप्पड़ मार

कमाई से खर्चा डिगे नही टूटे है खटिया के तार।

रसोई में कम तेल का तड़का,घी बना है सपना

क्या ये वही देश है जिसे समझता था मैं अपना

महँगाई का धौस दिखाकर अस्पताल बने कुवेर

रोजमर्रा की चीजें महँगी कौन लगाए किसे टेर?

मन में श्याम रूदन करे  नित्य बढ़े है भष्टाचारी

क्या करे सुदामा जब कृष्णा की देखे है लाचारी

करुण प्यास कुंठित मन कौन शांत कर पायेगा

महँगाई का वध करने को कौन योद्धा आयेगा?

कवि / लेखक –
श्याम कुमार कोलारे
सामाजिक कार्यकर्ता
चारगांव प्रहलाद, छिन्दवाड़ा (म.प्र.)
#ShyamKumarKolare