कविता- महंगाई
खूब बढ़ रही महंगाई गरीबी बढ़ती जाए हाय महंगाई तुझको क्या शर्म भी ना आए मिट्टी की दीवारें, फूस छत जैसी की तैसी मैया का चश्मा है टूटा, वो सुधरा न जाए खाट सुतली भी टूटी, चादर सुकड़ा जाए खूब बढ़ रही महंगाई गरीबी बढ़ती जाए।। मशीनें है हाथ घटाते नहीं देते किसी का साथ …
