Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!खूब बढ़ रही महंगाई गरीबी बढ़ती जाए
हाय महंगाई तुझको क्या शर्म भी ना आए
मिट्टी की दीवारें, फूस छत जैसी की तैसी
मैया का चश्मा है टूटा, वो सुधरा न जाए
खाट सुतली भी टूटी, चादर सुकड़ा जाए
खूब बढ़ रही महंगाई गरीबी बढ़ती जाए।।
मशीनें है हाथ घटाते नहीं देते किसी का साथ
मजदूरी का मोल पुराना काम से खाली हाथ
बाबा की पथराई आंखें ढूंढ रही पुराने दिन
कई दिनों से चप्पल है टूटी खाली चलते पग
मुन्नी का झबला हुआ चिथड़ा खुट टंगा जाए
खूब बढ़ रही महंगाई गरीबी बढ़ती जाए ।।
महंगाई तू न आना घर बिन बुलाई मेहमान
तेरे आने से टूटे हर सपने मेरे हर अरमान
नून-तेल साग-भात भी उड़ रहे आसमानों में
पाँव के छाले कराह उठे जूते के बढ़े दानो से
मुन्ना नया अंगा की आस स्वप्न सजाता जाए
खूब बढ़ रही है महगाई गरीबी बढ़ती जाए।।
नित्य मारे महगाई हमे कमर ये तोड़ी जाए
रोटी कपड़ा मकान की आस दूर होती जाए
जिन्दा है ऊपर से पर अंदर से मरता जाए
श्याम साथ नही ईश अब टीश बढ़ती जाए
सुदर्शन चला दो गोविन्द, घट महगाई जाए
खूब बढ़ रही है महगाई गरीबी बढ़ती जाए।।
कवि / लेखक –
श्याम कुमार कोलारे
सामाजिक कार्यकर्ता
चारगांव प्रहलाद, छिन्दवाड़ा (म.प्र.)
#ShyamKumarKolare
